कोरोना: अखबारों ने थामी हुई विश्वास की यह पताका कट न जाए !

*अजय बोकिल* 


जो अखबार, आपकी जिंदगी का हिस्सा बन चुके हों, ‍जिसे पढ़े बिना आपकी सुबह न होती हो, दुर्भाग्य से वही कोरोना काल में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। और यह कोई फेक न्यूज नहीं है, क्यों‍कि प्रिंट मीडिया में कोई फेक न्यूज नहीं होती। भारत जैसे देश में करीब ढाई सौ सालों से लोगों को शिक्षित, संसूचित करने और वि‍वेकशील बनाने वाला यह उद्दयोग शायद  इतिहास के सबसे बड़े संकट से गुजर रहा है। संचार क्रां‍ति के चलते लोगों की जानने-पढ़ने की बदलती आदतों के चलते समाचारपत्रों की प्रसार संख्या पहले ही घट रही थी, उस पर कोरोना ने पाठक और पत्र के बीच अटूट विश्वास की उस स्पर्श भरी कड़ी पर ही मर्मांतक चोट कर दी कि अखबारों को छूने से कोरोना फैलता है। दूसरे, लाॅक डाउन के कारण अखबार पाठकों तक पहुंचाना बहुत मुश्किल हो रहा है। तीसरे, अखबार की जीवन रेखा विज्ञापन राजस्व लगभग शून्य तक पहुंच गया है। कुछ बड़े मीडिया घरानों ने सरकार से इस लोकहितकारी व्यवसाय को बचाने की गुहार लगाई है। साथ ही गूगल और फेसबुक जैसे डिजीटल प्लेटफार्म्स द्वारा मीडिया द्वारा तैयार कंटेंट के दम पर अरबों डाॅलर की कमाई पर सवाल उठाते हुए मीडिया को उसका शेयर दिलवाने की मांग की है। छोटे अखबार तो आखिरी सांसें ही गिन रहे हैं। जाहिर है कि यदि  राजस्व ही नहीं रहा तो केवल जनसेवा अथवा मिशन के लिए कोई अखबार जिंदा नहीं रह सकता। 
‍परिस्थिति अत्यंत भयावह और वैश्विक है। इंटरनेट आने के बाद से दुनिया में प्रिंट मीडिया की उलटी गिनती शुरू हो गई थी। लेकिन अपनी विश्वसनीयता, बौद्धिक संपदा और एक अटूट संस्कार के रूप में अखबार किसी तरह खुद को प्रासंगिक बनाए हुए थे।  क्योंकि सारी दुनिया में 30 साल से ऊपर की पीढ़ी अभी भी अखबार को ही समाज का सच्चा आईना मानती रही है। अखबार कई रूपों में उनका साथी है। क्योंकि वह खबरें ही नहीं देता, आपसे मौन संवाद भी करता है। लेकिन पिछले कुछ समय से सरकारों की नीतियां अखबारों की मुश्कें कसने वाली ज्यादा रही हैं। वो शायद चाहती ही नहीं कि जनजागरण का सर्वाधिक आजमाया हुआ माध्यम जिंदा रहे और समाज में शिक्षक, मार्गदर्शक की भूमिका निभाए। 
अफसोस की बात है कि कोरोना के चलते कई काॅलोनियों में इस डर के मारे अखबारों को प्रतिबंधित कर दिया गया कि इसके तथा इसे लाने वाले के जरिए कोरोना फैलने की आशंका है। अखबार बार-बार इस बात का खंडन कर रहे हैं कि अखबारों की कोरोना से कतई दोस्ती नहीं है, वैज्ञानिक और डाॅक्टर भी यही कह रहे हैं, लेकिन अफवाहें तर्क पर भारी पड़ रही हैं। बहुत से पाठकों को पता नहीं होगा कि अखबार की एक प्रति छापने और बांटने पर जितना खर्च होता है, उसका केवल छठा हिस्सा अखबार कीमत के रूप में आपसे लेता है। बाकी घाटा विज्ञापन से पूरा करने की कोशिश की जाती है। लेकिन कोरोना के चलते पूरी दुनिया में ही अखबारों का विज्ञापन लगभग बंद है। क्योंकि जब बाजार ही बंद हैं तो कंपनियां विज्ञापन दें भी ‍िकसके लिए ? बची कसर गूगल और फेसबुक जैसे उन महाकाय डिजीटल प्लेटफार्म्स ने पूरी कर दी है, जो सामग्री और खबरें तो अखबारों से लेते हैं लेकिन बदले में उन्हें देते कुछ नहीं। यानी ‘मन लेहूं पै देहूं छंटाक नहीं।‘ जिन लोगों को फेसबुक पर स्टेटस अपडेट करते रहने की लत है और गूगल के बिना जिनका दिन पूरा नहीं होता, उन्हें इन प्लेटफार्म्स की कमाई के स्रोतों के बारे में ज्यादा मालूम नहीं है। प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ ने तो इसे ‘डिजीटल उपनिवेशवाद’ की संज्ञा देते हुए सरकार से इस ‘लूट’ को रोकने की गुहार की है। अखबार के मुताबिक फेसबुक और गूगल ने 2018-19 में अपने ऑनलाइन एड रेवेन्यू का करीब 70 प्रतिशत (11 हजार 500 करोड़ रू.) केवल भारत से कमाया था। 2022 में यह मार्केट बढ़कर 28 हजार  करोड़ रुपए होने का अनुमान है। इसी तरह पिछले दिनो ‘फायनेंशियल टाइम्स’ में पल्लवी मुंशी ने अपने लेख में  सवाल उठाया था कि ‘क्या कोरोना वायरस विश्व के अंतिम महान अखबार उद्दयोग ( न्यूजपेपर इंडस्ट्री)  को खत्म कर रहा है? ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ जैसे मीडिया समूह ने तो केन्द्रीय वित्त मंत्री सीतारमन को पत्र लिख कर देश के समाचारपत्र उद्योग को दो साल तक करों से छूट देने  तथा न्यूज प्रिंट आयात पर तत्काल  प्रतिबंध हटाने की मांग की है। वरना अखबारों का जिंदा रहना मुश्किल हो जाएगा। दूसरी तरफ कोरोना काल में असम और कुछ राज्यों में हाॅकर्स एसोसिएशन ने अखबार बांटने से इंकार कर दिया है तो महाराष्ट्र सरकार ने लाॅक डाउन में  अखबार वितरण को लेकर एक ऐसा आदेश जारी कर दिया था, जिससे अखबारों की कमर ही टूट जाती। व्यापक आलोचना के बाद यह आदेश संशोधित किया गया। 
तो क्या दुनिया में अखबारों के वजूद की यह आखिरी लड़ाई है? शायद हां। हाल में एक अंग्रेजी अखबार में छपी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि  88 फीसदी अखबार एक्जीक्यूटिव्स को डर है कि वो शायद अपना बिजनेस लक्ष्य पूरा नहीं कर पाएंगे। अमेरिका व ब्रिटेन में मीडिया उद्योग एक पखवाड़े पहले तक 500 अरब डाॅलर का नुकसान उठा चुका था। 
ऐसे में मजबूरन कई अखबार अब डिजीटल एडिशन पर जा रहे हैं। लेकिन वहां भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है।  न्यूजनाॅमिक्स के न्यूज इंडस्ट्री एनालिस्ट केन डाॅक्टर के मुताबिक अखबारों का डिजीटल सब्सक्रिप्शन माॅडल भी बहुत सफल नहीं है। यहां तक कि न्यूयाॅर्क टाइम्स जैसा 60 लाख डिजीटल सब्सस्क्राइबर वाला अखबार भी आने वाले समय में रेवेन्यू में भारी गिरावट से चिंतित है। क्योंकि आज कमाई का बड़ा हिस्सा तो गूगल और फेसबुक जैसे प्लेटफार्म ले जा रहे हैं। केन के अनुसार हाल में आॅस्ट्रेलिया सरकार  ने घोषणा की है कि वह गूगल और फेसबुक पर दबाव डालेगा कि वो न्यूज कंपनियों को उनके कंटेंट के लिए भुगतान करे। इसी तरह फ्रांस ने भी गूगल से न्यूज कंटेंट के भुगतान के ‍लिए प्रकाशकों से बात करने के लिए कहा है। इस बात की भी तैयारी है कि यूरोपियन यूनियन नया काॅपी राइट दिशा निर्देश लेकर आए। अमेरिका में न्यूज मीडिया एलायंस के अध्यक्ष डेविड शेवर्न का मानना है कि अब गूगल को न्यूज पब्लिशर्स को भी  म्यूजिक प्रकाशकों की तरह ट्रीट करना होगा। अगर हम भारत की बात करें तो वर्ष 2019 में भारतीय कंपनियों ने मीडिया विज्ञापनों पर 9 अरब डाॅलर खर्च किए थे, जिसमें से प्रिंट मीडिया की 2.6 अरब डाॅलर की हिस्सेदारी थी। लेकिन अब जो हालात है, उसे देखते हुए आशंका है कि अगले 6 माह में प्रिंट मीडिया को 2 अरब डाॅलर राजस्व का नुकसान होगा।  
अगर हम अखबारों की कमाई और कारोबारी हितों की बात न भी करे तो भी समाचार पत्र  बीती दो सदियों से मानव सभ्यता और संस्कृति के विकास के साक्षी और उसके सक्रिय भागीदार रहे हैं। समकालीन इतिहास की बोरियां अखबारों ने अपनी पीठ पर ढोई हैं और आज भी ढो रहे हैं। आज सोशल मीडिया ( कुछ इलेक्ट्राॅनिक भी) में फेक न्यूज के इस दौर में ये अखबार ही हैं, जो काफी हद तक भरोसे की पताका थामे हुए हैं। अफसोस कि  कोरोना ने इसी पताका को काटने की कोशिश की है। तमाम दबावों के बाद भी अखबारों में खबरों के संपादन और उसे यथासंभव खबर के रूप में पेश करने का अभी आग्रह जिंदा है। ज्यादातर अखबार अभी भी टीवी चैनलों  की तरह केवल राजनीतिक एजेंडों के हरकारे नहीं बने हैं। इससे भी बढ़कर बात यह कि अखबार को पढ़ना हमारे मन और मस्तिष्क दोनो को एक-सा सुकून देता है। वह हमे शेयरिंग भी सिखाता है और कई बार अजनबियत को रिश्ते में बदल देता है। यहां तक ‍िक  रद्दी बनकर भी वह आपको कुछ दे ही जाता है। अल-सुबह अखबार का न आना या देर से आना किसी स्वजन के समय पर घर न लौटने-सी बेचैनी पैदा करता है। साथ ही हाथों को अखबार का ताजा स्पर्श, कर्सर की भांति आंखों का उस पर घूमना, उसी के साथ 'हां, पेपर में आया है' जैसा ब्रह्म वाक्य घरों में गूंजना रोजाना एक पवित्र कर्मकांड की तरह घटित होता है। इसकी जगह कोई डिजीटल प्लेटफार्म कभी नहीं ले सकता। आप भी बिना अखबार जिंदगी को किस रूप में देखना चाहेंगे? 


वरिष्ठ संपादक 
‘राइट क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 24 अप्रैल 2020 को प्रकाशित)