मौजूदा दौर की पत्रकारिता न किताबों में सीखने को मिलती है और न ही किसी ट्रेनिंग में। डॉक्टर, पुलिस, पैरामेडिकल स्टॉफ जैसी ज़रूरी सेवाओं से जुड़े लोगों के साथ ही पत्रकार भी सडकों पर दौड़ रहे हैं। हाथ में माईक, कैमरे और लेटर पेड लिए। आमतौर पर पत्रकारों की तादात कहीं ज्यादा होती है लेकिन महामारी के इस दौर में चुनिंदा पत्रकार ही घरों से निकल रहे हैं। कुछ हद से ज्यादा जुनूनी, कुछ अपनी नौकरी की नैतिकता और बाक़ी बचे कुछ संस्थानों के दबाव में काम कर रहे हैं। एक पल सोचिए, जब ये फील्ड में होते हैं तो इनके परिवारों पर क्या गुज़र रही होती है।
निजी चैनलों के मालिक या नामचीन टीवी एंकर अपने स्टूडियों से लोगों को घरों से बाहर न निकलने की हिदायत दे रहे हैं लेकिन इससे उलट अपने उन पत्रकारों को अपनी जान झोंकने के लिए उन पर आँखें तरेर रहे हैं जो मैदान में हैं। जिन पत्रकारों के ज़रिए टीवी चैनल के मालिक अपने संस्थान चला रहे हैं, क्या उन्होंने जान हथेली पर लेने वाले इन पत्रकारों और इनके परिवारों के बारे में कभी पलभर भी सोचा है। शायद नहीं। खासकर टीवी की दुनिया में दिया तले अंधेरे की कहावत चरितार्थ होती है। यहां यह बात गौर करने लायक है कि पत्रकारिता के पेशे में उपर तो बहुत चमक-धमक है लेकिन जमीनी रिपोर्टर्स के लिए अभाव ही अभाव है। ।
असाइनमेंट डेस्क और इनपुट हेड की गरजती-बरसती घुडकियां मैंने कई सालों तक सुनी और झेली हैं। रिपोर्टर की जान या उसके परिवार के बारे में इनसे बड़ी संवेदनहीन और अमानवीय लोगो की फौज और कहीं नहीं हो सकती, यह मैं दावे के साथ कह सकता हूँ।
देश संकट में है, महामारी हर दरवाजे पर दस्तक दे रही है, शहर खामोश है, सड़कें सूनी पड़ी हैं मगर टीवी चैनलों में टीआरपी की होड़ आज भी उसी रफ्तार में है। टीवी चैनल या अन्य मीडिया संस्थान अपने ही रिपोर्टर्स की सुरक्षा को लेकर कितने संवेदनहीन होते है, यह हर पत्रकार भलीभांति जानता है। थोड़ी भी शर्म नहीं इनकी आँखों में !! लोग मर रहे हैं लेकिन टीवी चैनल अभी भी चिंघाड रहे हैं फलाँ शो में हमारा चैनल नंबर वन। सभी चैनलों को पछाड़ा ... वाह भाई गज़ब कर दिखाया आपने।
अख़बारों का प्रकाशन सत्तर से अस्सी फीसदी तक गिर गया है। राजस्व यानी विज्ञापन भी बहुत कम हो गए है। अखबारों के पन्नों की संख्या घटती जा रही है। लॉकडाउन खुलने के बाद क्या मीडिया पटरी पर लौट पाएगा। कितने ही पत्रकार साथी अभी से अपने रोज़गार विकल्पों की तलाश में जुट गए हैं। छंटनी और नौकरी से निकालने की तलवार हर किसी पर लटकी हुई है। दुखद है कि कई पत्रकार कोरोना की चपेट से बच नहीं पाए हैं। कई पत्रकार अपने संस्थानों के लिए इतने कर्तव्यनिष्ठ हैं कि वे महज एक मॉस्क के दम पर कोरोना संक्रमित अस्पतालों से लगाकर, केंटेनमेंट एरिया और कब्रिस्तानों तक से लाइव रिपोर्टिंग कर रहे हैं।
कुछ साल पहले मेरे दफ्तर में एक बडे साहब से मेरी किसी मसले पर बात हो रही थी। साहब एक बात पर बेहद झल्ला गए और उन्होंने मुझसे कहा तुम प्रदेश में इतने बडे चैनल को लीड कर रहे हो, तुम्हे पता नहीं स्ट्रींगर की परिभाषा क्या होती है। झल्लाते हुए साहब ने स्ट्रींगर बिरादरी की परिभाषा समझाते हुए जो शर्मनाक शब्द कहे उन्हें मैं यहां लिखना तक उचित नहीं समझता। वे शब्द आज भी मेरे कानों में गूँजते हैं तो मेरा चेहरा तमतमा जाता है। कोई जिम्मेदार व्यक्ति अपने ज़मीनी रिपोर्टर्स के बारे में ऐसी तुच्छ बातें कैसे कर सकता है। अक्सर देखा है कि चैनलों के अपने संवाददाताओं पर हमले, हादसे या अन्य घटनाओं में प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई के बजाय चैनलों को साँप सूंघ जाता है। भयावह हिंसा की आग के बीच चैनल को रिपोर्टर और कैमरामेन की नहीं बल्कि ओबी वैन की चिंता सताने लगती है। अपनी टीआरपी के लिए रिपोर्टर्स को बगैर सोचे समझे किसी भी धधकती आग में झोंक दिया जाता है। कुछ साल पहले की ही एक घटना रोंगटे खडे कर देती है। रिपोर्टर किसी कवरेज पर जा रहा होता है। एक्सीडेंट में उसकी मौत हो जाती है। परिवार अनाथ हो जाता है मगर हेड ऑफिस में बैठे कथित बडे पत्रकारों और चैनल मालिकों का दिल नहीं पसीजता। पत्रकार साथी ही परिवार की थोडी-बहुत मदद कर पाते हैं। आखिर क्यों स्टूडियो में बैठकर बडी-बडी बाते करने वाले सूट-बूट वाले पत्रकारों की जुंबा की बातें दिल को नहीं छूती।
ऐसे मीडिया संस्थानों में इन दिनों मैदानी रिपोर्टर्स को मौत के मुँह में तो धकेला जा रहा है लेकिन इनको और इनके परिवारों की सुरक्षा कौन देगा। क्या इस सवाल का जवाब दे पाएंगे मीडिया संस्थान और उनके धन्ना सेठ बने मालिक।
कोरोना के खतरे में पत्रकारिता संस्थानों की बेशर्म संवेदनहीनता